Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


136 . दूसरी मोहन – मन्त्रणा : वैशाली की नगरवधू136 . दूसरी मोहन – मन्त्रणा : वैशा

महाबलाधिकृत सुमन के अधिकरण में मोहन - गृह में वज्जीगण की समर मन्त्रणा हुई । सन्धिवैग्राहिक जयराज ने अपना विवरण सुनाते हुए कहा - “ यद्यपि यह सत्य है कि मगध- सम्राट के पास उत्तम सेनापति और अच्छे सैनिक नही हैं , तथा उसकी सेना में बहुत छिद्र हैं , फिर भी आर्य वर्षकार का तूष्णी युद्ध और आर्य चण्डभद्रिक की व्यूह - योजना अद्वितीय है। हम यदि तनिक भी असावधान हुए तो हमारा पतन निश्चित है और हमारे साथ उत्तरपूर्वीय भारत के सब गणराज्य नष्ट हो जाएंगे। यह स्पष्ट है कि मगध- सम्राट् की सम्पूर्ण शक्ति इन दोनों ब्राह्मणों के हाथ में है और यही मागध राज्यसत्ता को साम्राज्य के रूप में संगठित कर रहे हैं , जो आर्यों की पुरानी कुत्सित राजव्यवस्था है। आर्यों के साम्राज्य इसलिए सफल हुए , कि उनमें आर्यों के शीर्ष स्थानीय क्षत्रिय और ब्राह्मण एकीभूत हो गए थे और निरीह प्रजावर्गीय संकर जातियों का कोई आश्रय ही न था ; परन्तु अब वह बात नहीं है । शिशुनाग वंश आर्य नहीं है । वह अपने ही स्वर्गीय जनों पर सम्राट् होकर रह नहीं सकते । ये आर्य ब्राह्मण, जो उस मूर्ख राजा की आड़ में आर्यों के ढांचे पर साम्राज्य गांठ रहे हैं वह अन्तत: विफल होगा । परन्तु अभी वह यदि वैशाली को आक्रान्त करता है और उधर प्रद्योत का भी पतन हो जाता है, तो हमारी सम्पूर्ण गणभावना नष्ट हो जाएगी और सम्पूर्ण जनपद फिर आर्यों के दासत्व में फंस जाएगा अथवा साम्राज्यवाद के मद में अन्धे बिम्बसार जैसे जातिघातक ही उनके अधिपति बन बैठेंगे! ”

“ यह अत्यन्त भयानक बात होगी आयुष्मान्, सम्पूर्ण जनपद के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए हमें लड़ना और जय पाना होगा । ”सेनाधिनायक सुमन ने कहा।

“ किन्तु सेनापति , यदि सत्य देखा जाए, तो हम गणराज्यों के विधाता भी तो ठीक-ठीक जनपद मानवीय अधिकारों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे! हमने भी तो अपने गणराज्यों की राज्य-व्यवस्था में आर्यों का बहिष्कार कर रखा है ! ”सिंह ने गम्भीरतापूर्वक कहा ।

“ यह है, परन्तु इसके गम्भीर कारण हैं , तथा इस समय हमें केवल मूल विषय पर विचार करना है, आयुष्मान् ! अब हमें यह जान लेना चाहिए कि हमारे भय के दो मध्य बिन्दु हैं - एक ब्राह्मण वर्षकार और दूसरे आर्य चण्डभद्रिक। ”

“ एक तीसरा भय और है। ”

“ वह कौन ? ”

“ सेनापति सोमप्रभ । वह एक मागध तरुण है, जिसके स्थैर्य , रणापांडित्य और विलक्षण प्रतिभा पर तक्षशिला के आचार्य और छात्र दोनों ही स्पर्धा करते रहे हैं । सम्भवत : वह मागध ही तरुण मागध - सेना का संचालन करेगा। ”जयराज ने कहा।

“ यह तरुण कौन है भद्र ? ”

“ उसका परिचय रहस्यपूर्ण है, सम्भवत : एक ही व्यक्ति उसका परिचय जानता है , पर उसने होंठ सी रखे हैं ।

“ कौन व्यक्ति ? ”

“ आर्या मातंगी। ”

“ यह तो बड़ी अद्भुत बात है। तब फिर सम्राट् ने इस अज्ञात -कुलशील को इतना भारी दायित्व कैसे दे रखा है ? ”

“ चम्पा- युद्ध में उसने असाधारण रण - पाण्डित्य प्रदर्शन करके आर्य भद्रिक की प्रतिष्ठा बचाई थी । ”

“ तो क्या सम्राट् ने उसे सेनापति अभिषिक्त किया है ? ”

“ नहीं , मगध- सेनापति चण्डभद्रिक ही है । ”

“ भद्रिक के शौर्य से मैं अविदित नहीं हूं । भद्रिक मेरा सह - सखा है, मैं उसके सम्मुख असहाय हूं , वह महाप्राण पुरुष हैं , फिर भद्र, तू ऐसा क्यों कहता है कि श्रेणिक के पास अच्छे सेनापति नहीं हैं ? ”सेनापति सुमन ने कहा।

“ भन्ते सेनापति, आर्य भद्रिक की निष्ठा निस्सन्देह ऐसी ही है , परन्तु मगध में उनकी - सी चली होती , तो मगध - सेना अजेय होती। परन्तु सम्राट् सदैव उन पर सशंक रहते हैं । वे समझते हैं कि कहीं चण्डभद्रिक उन्हें मारकर सम्राट न हो जाएं । जैसे अवन्ती - अमात्य ने राजा को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया ।

“ यही सत्य है आयुष्मान् ! मैंने उसका कौशल देखा है। परन्तु आयुष्मान् सोमप्रभ कहां है ? कुछ ज्ञात हुआ ? ”

“ मगध में तो यही सुना है कि वह देश-विदेश में घूमकर ज्ञानार्जन कर रहा है। ”

“ मगध में जो सब कहते हैं वह तो सुना , परन्तु सन्धिवैग्राहिक जयराज क्या कहते हैं ? ”

जयराज हंस दिए। उन्होंने धीरे-से कहा - “ जयराज कहता है, वह सशरीर , सदलबल वैशाली में उपस्थित है। ”

जयराज की बात सुनकर सब अवाक् होकर उनका मुंह ताकने लगे। सेनापति ने कहा

“ यह क्या कहता है आयुष्मान् ?

सिंह ने उत्तेजित होकर कहा - “ ऐसा प्रबल शत्रु दल - बल - सहित वैशाली में उपस्थित है, और हमें इसका ज्ञान ही नहीं है! ”

“ ज्ञान न होता तो कहता कैसे ? ”

“ वह है कहां ? ”

“ मधुवन की उपत्यका में , ” कुछ रुककर उसने कहा-“ दस्यु बलभद्र ही सोमप्रभ है। ”

क्षण - भर के लिए सब स्तब्ध बैठे रहे । स्वर्णसेन विचलित हो गए । सिंह ने कहा- “ ठीक है, मैंने भी सन्देह किया था । अच्छा , उसके पास सैन्य कितनी है ? ”

“ पचास सहस्र , कुछ अधिक ही । इनमें दस सहस्र उत्कृष्ट अश्वारोही हैं । वे सब टुकड़ी बांधकर दस्यु -वेश में सम्पूर्ण जनपद में फैले हुए हैं । दिन -भर वे पर्वत -कन्दराओं में छिपे रहते हैं और रात्रि को आक्रमण करते हैं । ये सब मंजे हुए योद्धा हैं , उनमें कुछ राजमार्ग पर आते - जाते राजस्व , अन्न और दूसरी युद्धोपयोगी वस्तुओं को लूट लेते हैं । कुछ किसानों में मिल उन्हें बलि न देने और विद्रोह करने को उकसाते हैं । कुछ नगरों, वीथियों, गुल्मों पर छापा मारकर लूटपाट करते हैं ।

“ इतना ? ”

“ और भी भन्ते सेनापति , उसने मरुस्थल में धान्वन दुर्ग बनाए हैं , जंगलों में वन दुर्ग और झाड़ियों से भरे घने - गहन वनों में संकट - दुर्ग बना लिए हैं ; जहां दलदल हैं वहां ‘पंक बनाए हैं और पर्वतों पर शैल । पर्वतों की उपत्यकाओं में निम्न और विषम तथा गौओं और शकटों के चल - दुर्ग बनाए हैं । ये सब ‘ सत्र हैं और शत्रु के छिपकर घात करने के साधन हैं । इन सबको यथावत् निर्माण कर शत्रु कूटयुद्ध कर रहा है । वह बहुत धन - जन की हानि कर चुका है । ”

“ तो इधर ब्राह्मण का तूष्णी -युद्ध और उधर आयुष्मान् सोमप्रभ का कूटयुद्ध । तो अब श्रेणिक बिम्बसार के प्रकट -युद्ध के कैसे समाचार हैं ? ”

“ कहता हूं भन्ते सेनापति , प्रथम तो यह कि उसने सोन, गंगा और बागमती के तट के सब दुर्गों की मरम्मत करा ली है तथा सोलह नये दुर्गनिर्माण किए हैं । इन दुर्गों में साल के मोटे खम्भों के तिहरे प्राकार हैं । प्रत्येक दुर्ग में तीन से सात सहस्र तक शिक्षित भट , पादातिक, अश्वारोही, रथी और गजारोही हैं । अन्न , जल और अन्य सामग्री इतनी संचित है कि दुर्गवासी आवश्यकता होने पर एक वर्ष तक उससे काम चला सकते हैं । ”

यह विवरण सुनकर सेनाध्यक्ष ने कहा -“ इस अवस्था को देखते तो भद्रिक की जितनी प्रशंसा की जाय , थोड़ी है । ”

सिंह ने कहा - “ हुआ, आगे कहो! ”

जयराज ने कहा - “ उसने एक सुव्यवस्थित नौसेना भी तैयार कर ली है। इसमें बीस सहस्र नौकाएं हैं , जो तीन प्रकार की हैं : एक दीर्घा, जिनकी लम्बाई साठ हाथ और चौड़ाई चालीस हाथ है । ये हाथियों और अश्वों एवं रथों को स्थानान्तरित करती हैं । इनमें से प्रत्येक में सोलह नाविक और पचास धनुर्धर बैठ सकते हैं । दूसरी चपला , जो शीघ्र चलनेवाली , हल्की परन्तु अच्छी सुदृढ़ हैं । इनमें 8 नाविक और 20 धनु - खड्ग - शूलधारी बैठ सकते हैं । आर्य भद्रिक की योजना यह है कि विजय का पूरा दायित्व नौवाहिनी पर ही केन्द्रित रहे । सम्राट का कोष निस्सन्देह रिक्त था , पर सम्राट ने उसे परिपूर्ण कर लिया है। अनेक श्रेष्ठियों ने उसे भर दिया है। उनके शस्त्र और सैन्य भी हमसे अधिक तथा उत्तम हैं , अथच हमारी तैयारियों का उसे यथेष्ट ज्ञान है। इसमें जो उसके गुप्तचर श्रमण ब्राह्मणों के रूप में बिखरे हुए हैं , उसकी बहुत सहायता कर रहे हैं । अंग को विजय कर लेने पर वहां के कूट - दन्त जैसे बड़े- बड़े महाशाल ब्राह्मणों को उसने सम्मान और जागीर देकर अपने पक्ष में कर लिया है और भद्दिय के मेंढक सेट्ठी की भांति चम्पा के सम्पूर्ण वणिक भी श्रेणिक बिम्बसार का यशोगान करते हैं ; उन्होंने उसे सत्रह कोटि - भार सुवर्ण दिया है। आर्य भद्रिक ने वहां जो व्यवस्था की है, उससे सभी चम्पावासी प्रसन्न हैं । उधर उसने अपने को श्रमण गौतम का अनुयायी प्रसिद्ध कर दिया है। गत बार जब श्रमण गौतम राजगृह गए , तो वह निरभिमान हो बारह लाख मगध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्थों तथा अस्सी सहस्र गांवों के मुखियों को लेकर गृध्रकूट पर पहुंचा। वहां से गौतम को अपने राजोद्यान वेणुवन में ले आया और वह उद्यान उसने गौतम को भेंट कर दिया ।

“ बिम्बसार इस प्रकार अपने को बड़ा धार्मिक, श्रद्धालु और निरभिमान प्रकट करके प्रशंसा का पात्र हो रहा है। इन सब कारणों से हम कह सकते हैं , कि आज मगध सम्राट् युद्ध करने के लिए सर्वापेक्षा अधिक सक्षम है । ”

जयराज इतना कहकर चुप हुए । फिर उन्होंने कहा - “ उनकी कुछ सन्धियां भी हैं . जिनसे हम लाभ उठा सकते हैं । इनमें सबसे अधिक यह कि हममें से प्रत्येक लड़ेगा अपने संघ की स्वतंत्रता के लिए, परन्तु मागधी सेना के सब सैनिक आर्य रज्जुलों के सैनिक की भांति नौकरी के लिए लड़ते हैं ।

“ यह सत्य है कि सम्राट ने चम्पा से प्राप्त राज - कोष एवं चम्पा के सेट्ठियों से प्राप्त सत्रह कोटि - भार सुवर्ण प्राप्त करके अपना कोष परिपूर्ण कर लिया है। उसे अंग की लूट - मार का माल भी बहुत मिला है। उसकी सेना भी हमसे अधिक है, परन्तु उसकी बहुत - सी सेना उसके बिखरे हुए तथा अरक्षित साम्राज्य की सीमाओं पर फैली हुई है । अभी अंग की आग भी दबी नहीं है । वहां भी उसकी बहुत - सी सेना फंसी हुई है । उधर अवन्ती और मथुरा का भय सर्वथा निर्मूल नहीं हुआ है और सबसे अधिक यह कि मगध का प्राण वर्षकार हमारे हाथों में है। उसकी प्रत्येक चाल और गतिविधि से परिचित होना चाहिए। हमारी सेना के लिच्छवि सैनिक भी यह समझते हैं कि गण- शासन उनका अपना सुख - स्वातन्त्र्य से भरपूर शासन है; यहां उनसे न तो मनमाना कर लिया जाता है, न उनकी सुन्दरी कन्याएं बलपूर्वक हरण करके महल में डाल दी जाती हैं । न उनके अच्छे रथ और उनके घोड़े छीने जाते हैं । वज्जी ब्राह्मण - जेट्ठों और गृहपति -निगमों से हमें स्वेच्छा से सहयोग मिलने की आशा है। ”

सब विवरण सुनकर सेनापति सिंह ने कहा - “ मित्र जयराज ने जो कुछ वक्तव्य दिया , वह आपने सुना। अब मैं आपको अपनी सेना की स्थिति बताता हूं । हमने मागधों के नदी-तीर के प्रत्येक दुर्ग के सम्मुख दो - दो दुर्ग तैयार किए हैं । मिही- तट पर तो हमने दुर्गों का तांता ही बांध दिया है । मिही के उस पार की भूमि मल्लों की है, वे हमारे मित्र हैं , अत : वहां हम मिही के उस पार उतर सकते हैं ; आप देख चुके हैं कि मिही की धारा बहुत तीव्र है । इसलिए नीचे से ऊपर आने में नौकाओं को बहुत मन्द चाल से जाना पड़ता है । अत : शत्रु हमारे इन दुर्गों पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता । इसलिए हम यहां अपनी रक्षित सैन्य और शस्त्रास्त्र संचित कर सकते हैं ।...

“ दूसरी बात यह है कि इधर तो मल्लों की इस तट - भूमि को मागध अपने उपयोग में नहीं ला सकते और बहाव की ओर मिही के मार्ग से हमारी सैनिक नौकाएं तीर की भांति शत्रु पर टूट पड़ सकती हैं । इस समय हमारे पास दो सहस्र से अधिक सैनिक नौकाएं हैं , जिन पर पचास सहस्र भट डटकर युद्ध कर सकते हैं । आगामी दो मासों में हम और भी दो सौ रणतरी बना लेंगे। उधर मगध को वज्जी पर आक्रमण करने के लिए बड़ी - बड़ी नदियों को पार करना पड़ेगा । उनकी गतिविधि को रोकने के लिए हमें नौकाओं की अत्यन्त आवश्यकता होगी । वास्तव में सत्य यही है कि इस युद्ध में हम नौकाओं द्वारा ही विजयी हो सकते हैं । इस सम्बन्ध में हमें एक यह सुविधा है कि मगधों की अपेक्षा हमारे पास मल्लाहों के कुल अधिक हैं । बेगार और असुविधाओं के कारण तथा वज्जीतन्त्र में स्वतंत्रता , भूमि तथा अन्य सुविधा पाने से मगध के बहुत मल्लाह - कुल वज्जी में आ बसे हैं ; यह आप जानते हैं कि हमारे मल्लाह दास नहीं हैं , वे सुखी , सम्पन्न और हमारे गण के सहायक हैं । उनके जेटकों ने स्वेच्छा से ही अपनी सेवाएं हमें समर्पित की हैं । हमारे गान्धार मित्र काप्यक की सम्मति से हमने एक विशेष प्रकार की हल्की रणतरी बनाई है , जिनका कौशल गुप्त रखा गया है । ये हमें नौ -युद्ध में अति महत्त्वपूर्ण सहायता देंगी। हाथियों, रथों व अश्वों को पार कराने के लिए विशाल नौकाएं तथा उत्तम घाट बना लिए हैं ।...

“ अब यदि हम दक्षिण और पूर्वी सीमा पर दृष्टि देते हैं , तो हमारी पदाति सेना लगभग मगध सेना के समान ही संगठित एवं संख्या में बराबर है तथा उनकी शिक्षा आधुनिक गान्धार - पद्धति पर की गई है । अश्व , रथ , गज , हमारे पास मागधों से कम अवश्य हैं , परन्तु अवन्ती और मथुरा में बहुत - सी मागधी अश्वारोही तथा गजसेना वहां फंसी है । समय पर उसकी सहायता सम्भव नहीं है, फिर हमारे पास नौ मल्लगण और अठारह कासी - कोल के गणराज्यों का अक्षुण बल है। सब मिलाकर हम पौने दो अक्षौहिणी सेना समर में भेजने की आशा करते हैं । ”

अब नौबलाध्यक्ष स्यमन्तक ने कहा - “ मित्र ! सिंह ने जो अपना बल - परिचय दिया है, उसके सम्बन्ध में मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि मेरी दृष्टि में हम मागधों से अधिक सुगठित हैं । हमें यह जान लेना चाहिए कि दक्षिण का युद्ध ही निर्णायक युद्ध होगा और मैं अपने मित्र काप्यक और उसके गान्धार वीरों की सहायता से , जिनकी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं , बहुत आशान्वित हूं। मैं कह सकता हूं कि हमें मिही तटवर्ती दुर्ग और रणतरियां ही सफलता प्रदान करेंगी । मागध सब बातों का प्रत्युत्तर रखता है पर हमारी उन दो सहस्र रणतरियों का उसके पास कोई प्रत्युत्तर नहीं है। ”

काप्यक ने कहा - “ भन्ते , सेनापति और मित्रगण यह जानकर प्रसन्न होंगे कि मुझे समाचार मिला है कि गान्धार से जो वैद्यों और भटों का दल चला है, वह दो ही चार दिन में यहां पहुंचनेवाला है । यहां मैं नौका- युद्ध का एक रहस्य निवेदन करता हूं जिसे मैंने भलीभांति निरीक्षण किया है । मिही नदी दिधिवारा के पास गंगा में मिलती है , किन्तु सेना उससे बहुत नीचे पाटलिग्राम के सामने है । इससे मागधों को तो हम भरपूर हानि पहुंचा सकते हैं पर वे हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते । ”

इस पर सेनापति सिंह ने कहा - “ तो भन्ते सेनापति , मैं प्रस्ताव करता हूं कि हम अब तैयार हैं और हमें मागधों के आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, तथा अवसर पाते ही प्रथम आक्रमण कर देना चाहिए। पहले आक्रमण के लिए तट की सेनाओं, नौकाओं और हाथियों को पहले तथा रथों , अश्वों और पदातिकों को बाद में प्रयुक्त करना चाहिए और मिही की रक्षित सेना को उस समय , जब शत्रु थक जाए ।

इस पर महाबलाध्यक्ष सुमन ने कहा - “ तो आयुष्मान्, ऐसा ही हो । तू सैन्य को तैयार रख और अवसर पाते ही आक्रमण कर ; मैं अमात्य वर्षकार और उनके सहायकों को बन्दी करने की आज्ञा प्रचारित करता हूं । ”


महाबलाधिकृत सुमन के अधिकरण में मोहन - गृह में वज्जीगण की समर मन्त्रणा हुई । सन्धिवैग्राहिक जयराज ने अपना विवरण सुनाते हुए कहा - “ यद्यपि यह सत्य है कि मगध- सम्राट के पास उत्तम सेनापति और अच्छे सैनिक नही हैं , तथा उसकी सेना में बहुत छिद्र हैं , फिर भी आर्य वर्षकार का तूष्णी युद्ध और आर्य चण्डभद्रिक की व्यूह - योजना अद्वितीय है। हम यदि तनिक भी असावधान हुए तो हमारा पतन निश्चित है और हमारे साथ उत्तरपूर्वीय भारत के सब गणराज्य नष्ट हो जाएंगे। यह स्पष्ट है कि मगध- सम्राट् की सम्पूर्ण शक्ति इन दोनों ब्राह्मणों के हाथ में है और यही मागध राज्यसत्ता को साम्राज्य के रूप में संगठित कर रहे हैं , जो आर्यों की पुरानी कुत्सित राजव्यवस्था है। आर्यों के साम्राज्य इसलिए सफल हुए , कि उनमें आर्यों के शीर्ष स्थानीय क्षत्रिय और ब्राह्मण एकीभूत हो गए थे और निरीह प्रजावर्गीय संकर जातियों का कोई आश्रय ही न था ; परन्तु अब वह बात नहीं है । शिशुनाग वंश आर्य नहीं है । वह अपने ही स्वर्गीय जनों पर सम्राट् होकर रह नहीं सकते । ये आर्य ब्राह्मण, जो उस मूर्ख राजा की आड़ में आर्यों के ढांचे पर साम्राज्य गांठ रहे हैं वह अन्तत: विफल होगा । परन्तु अभी वह यदि वैशाली को आक्रान्त करता है और उधर प्रद्योत का भी पतन हो जाता है, तो हमारी सम्पूर्ण गणभावना नष्ट हो जाएगी और सम्पूर्ण जनपद फिर आर्यों के दासत्व में फंस जाएगा अथवा साम्राज्यवाद के मद में अन्धे बिम्बसार जैसे जातिघातक ही उनके अधिपति बन बैठेंगे! ”

“ यह अत्यन्त भयानक बात होगी आयुष्मान्, सम्पूर्ण जनपद के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए हमें लड़ना और जय पाना होगा । ”सेनाधिनायक सुमन ने कहा।

“ किन्तु सेनापति , यदि सत्य देखा जाए, तो हम गणराज्यों के विधाता भी तो ठीक-ठीक जनपद मानवीय अधिकारों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे! हमने भी तो अपने गणराज्यों की राज्य-व्यवस्था में आर्यों का बहिष्कार कर रखा है ! ”सिंह ने गम्भीरतापूर्वक कहा ।

“ यह है, परन्तु इसके गम्भीर कारण हैं , तथा इस समय हमें केवल मूल विषय पर विचार करना है, आयुष्मान् ! अब हमें यह जान लेना चाहिए कि हमारे भय के दो मध्य बिन्दु हैं - एक ब्राह्मण वर्षकार और दूसरे आर्य चण्डभद्रिक। ”

“ एक तीसरा भय और है। ”

“ वह कौन ? ”

“ सेनापति सोमप्रभ । वह एक मागध तरुण है, जिसके स्थैर्य , रणापांडित्य और विलक्षण प्रतिभा पर तक्षशिला के आचार्य और छात्र दोनों ही स्पर्धा करते रहे हैं । सम्भवत : वह मागध ही तरुण मागध - सेना का संचालन करेगा। ”जयराज ने कहा।

“ यह तरुण कौन है भद्र ? ”

“ उसका परिचय रहस्यपूर्ण है, सम्भवत : एक ही व्यक्ति उसका परिचय जानता है , पर उसने होंठ सी रखे हैं ।

“ कौन व्यक्ति ? ”

“ आर्या मातंगी। ”

“ यह तो बड़ी अद्भुत बात है। तब फिर सम्राट् ने इस अज्ञात -कुलशील को इतना भारी दायित्व कैसे दे रखा है ? ”

“ चम्पा- युद्ध में उसने असाधारण रण - पाण्डित्य प्रदर्शन करके आर्य भद्रिक की प्रतिष्ठा बचाई थी । ”

“ तो क्या सम्राट् ने उसे सेनापति अभिषिक्त किया है ? ”

“ नहीं , मगध- सेनापति चण्डभद्रिक ही है । ”

“ भद्रिक के शौर्य से मैं अविदित नहीं हूं । भद्रिक मेरा सह - सखा है, मैं उसके सम्मुख असहाय हूं , वह महाप्राण पुरुष हैं , फिर भद्र, तू ऐसा क्यों कहता है कि श्रेणिक के पास अच्छे सेनापति नहीं हैं ? ”सेनापति सुमन ने कहा।

“ भन्ते सेनापति, आर्य भद्रिक की निष्ठा निस्सन्देह ऐसी ही है , परन्तु मगध में उनकी - सी चली होती , तो मगध - सेना अजेय होती। परन्तु सम्राट् सदैव उन पर सशंक रहते हैं । वे समझते हैं कि कहीं चण्डभद्रिक उन्हें मारकर सम्राट न हो जाएं । जैसे अवन्ती - अमात्य ने राजा को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया ।

“ यही सत्य है आयुष्मान् ! मैंने उसका कौशल देखा है। परन्तु आयुष्मान् सोमप्रभ कहां है ? कुछ ज्ञात हुआ ? ”

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